शिक्षा हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है। यह कथन कहने में जितना सहज लगता है भारत के लिए इसे अपनाना उतना ही कठिन होता जा रहा है। 1986 की शिक्षा नीति से लेकर 2020 के राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था के उतरते चढ़ते ग्राफ को पूरी तरह से अपने अंदर समेट रखा है। इन नीतियों का क्रियान्वयन वास्तविक स्तर पर कितना कारगर साबित हो पा रहा है इसकी सत्यता से हम सभी परिचित है।
2020 जहां अपने साथ कोरोना का कहर लेकर आया तो वहीं इस वर्ष ने कई सारी सेक्टर्स की असलियत भी हमारे सामने रख दी। इन्हीं सेक्टर्स में से एक शिक्षा व्यवस्था की बात की जाए तो इस व्यवस्था की कई सारी नाकामियां लोगों को अब साफ रूप से दिखाई दे रही है।
भारत की प्राथमिक शिक्षा प्रणाली जिसके तहत 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को बुनयादी शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान है। उस शिक्षा प्रणाली के होते हुए भी वर्ष 2021तक भी कई राज्यों की साक्षरता दर में कोई इज़ाफ़ा नहीं देखा गया है। इनमें प्रमुख रूप से बिहार, तेलगांना, अरुणाचल प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, झारखंड उड़ीसा जम्मू कश्मीर और छत्तीसगढ़ शामिल है। इन राज्यों में साक्षरता दर का प्रतिशत 63-73 के बीच है। तो वहीं देश के दक्षिणी इलाकों में स्थितियां उत्तर और उत्तर पूर्व राज्यों से बेहतर है। दक्षिण के कुछ राज्यों में साक्षरता दर का प्रतिशत 93-86 के बीच है।
यह सभी आकंड़े तो केवल सतही सत्य से आपको रूबरू कराते है।
व्यवस्था की सच्चाई हमारे सामने तब आती है जब कोरोना जैसी महामारी बुनयादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की कमर तोड़ कर रख देती है।
प्राथमिक शिक्षा की बुनियादी हकीकत

शिक्षा भारत की बुनियादी जरूरत में से एक है। इस बुनियादी जरूरत को भारत वर्ष 2002 में शिक्षा के मौलिक अधिकार को प्राप्त करने के बाद से लेकर वर्ष 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बनने तक कितना प्राप्त कर पाया है?इसकी सच्चाई पर प्रकाश डाला जाए तो हम पाएंगे की आज भी भारत के कई ऐसे राज्य है जहां प्राथमिक शिक्षा के लिए भी संसाधनों की कमी है। राज्यों में हालात ऐसी है की 5 वी क्लास के बच्चे से अगर अक्षरों को पहचाने की बात हो तो वो उसमें भी चूक जाते हैं। इसके साथ ही अंग्रेज़ी और गणित जैसे विषयों में बच्चों के ज्ञान का स्तर बहुत ही नीचे है। शिक्षा के लक्ष्यों को हासिल करना तो दूर, देश में आज भी करीब 1.5 लाख स्कूलों की कमी है इसके कारण ही 17 लाख से अधिक बच्चे स्कूलों से बाहर है। वहीं पूरी दुनिया में 6 से 11 साल की उम्र के छह करोड़ बच्चे प्राइमरी स्कूल और साढ़े छह करोड़ सेकंडरी स्कूल नहीं जाते।बुरूंडी, मोजांबिक, यमन, घाना, जाम्बिया, मोरक्को, रवांडा, नेपाल, निकारागुआ, वियतनाम और कंबोडिया जैसे 17 देशों ने 2000 और 2012 के बीच स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या आधी से कम कर ली। साल 2000 में इन सभी देशों में कम से कम 10 लाख और कुल मिलाकर 2 करोड़ 70 लाख बच्चे स्कूल से बाहर थे। लेकिन अब यह संख्या कम होकर 40 लाख के करीब रह गई है। ये देश संसाधनों के साथ हर क्षेत्र मे भारत से छोटें हैं। लेकिन भारत जैसे देशों मे प्रगति की रफ्तार काफी धीमी है।जानकार इसकी वजह प्राथमिक शिक्षा पर सरकारी खर्च में कमी बतातें है। आंकड़ों के मुताबिक साल 2010 से 2012 के बीच ही इस खर्च में करीब 17 अरब रु. की कमी आई थी। अभी भी देश के 92 फीसद स्कूल शिक्षा अधिकार कानून के मानकों को पूरा नहीं कर रहे हैं। केवल 45 फीसदी स्कूल ही प्रति 30 बच्चों पर एक टीचर होने का अनुपात करते हैं। पूरे देश में अभी भी लगभग 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक शिक्षा से बेदख़ल हैं। इसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ रहा है।
प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव की जरूरत जितनी ज्यादा महसूस होती है यहां बदलाव या विकास की रफ्तार उतनी ही धीमी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की 5+3+3+4 डिज़ाइन के आने के बाद भी बेसिक शिक्षा में संसाधनों की कमी, शिक्षकों की नियुक्तियों में कमी, शिक्षकों
की गुणवत्ता में कमी और कई सरकारी स्कूलों की आधारभूत संरचना बदत्तर हालत में है। कुछ इन्हीं परेशानियों और कमियों से भारत के अधिकांश सरकारी स्कूल जूझ रहें। इन स्थितियों की जिम्मेदार केवल सरकार या सरकारी व्यवस्था ही नहीं है बल्कि लोगों के बीच जागरूकता की कमी उनका बदलाव को लेकर कोई रुचि न लेना भी है।
प्राथमिक शिक्षा में किन कमियों को इंगित कर रहा है कोरोना।

कोरोना सिर्फ एक बीमारी के रूप में इस देश को प्रभावित नहीं कर रहा बल्कि इस देश की पूरी आबादी को कई सारे सेक्टर्स में उनकी नाकामयाबियों की हकीकत भी दिखा रहा है। ऐसे में अगर बात करे कोरोना काल में शिक्षा व्यवस्था की तो बेसिक शिक्षा की बदहाल हालत का सच तब सामने आ जाता है जब ऑनलाइन शिक्षा या ऑनलाइन पढ़ाई के लिए भारत जैसे देश में कोई व्यवस्था नहीं है। एक कक्षा के सभी बच्चों तक पाठ सामग्री पहुँचाने में स्कूलों ने अपने हाथ खड़े कर दिए साथ ही जब ऑनलाइन माध्यम तक उनकी पकड़ सुनिश्चित हो पाई तो भी वह कक्षा के मात्र 18-20 बच्चों से ही संपर्क स्थापित कर पाएं।यह सिलसिला यही नहीं थमता बल्कि जब ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली के हिसाब से स्कूलों के टीचरों को पढ़ाने और मौजूदा तकनीक को समझने की बात आई तो वो उसमें भी पीछे रह गए। कोरोना को हमसे जूड़े हुए लगभग एक वर्ष से ऊपर हो चुके है लेकिन ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली के तहत प्राथमिक शिक्षा की गाड़ी पटरी पर अभी भी नहीं आयी है। कुछ परिवार ऐसे हैं जो इन तकनीकों को अपनाना नहीं चाहते क्योंकि यह उन्हें समय और पैसे की बर्बादी लगते है, तो वहीं दूसरी ओर कुछ परिवारों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है की वह ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच ही स्थापित नहीं कर पा रहे।
शिक्षा पर असर 2020 का आंकड़ा..

इस संदर्भ में शिक्षा से संबंधित कुछ निश्चित आकंड़े एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2020 ने हमारे सामने रखे। इस रिपोर्ट के निष्कर्ष में यह साफ तौर पर बताया गया कि 2020-21 में विद्यालय में प्रवेश नहीं लेने वाले बच्चों का हिस्सा वर्ष 2018 की तुलना में ज्यादा है। विद्यालय में नामांकित नहीं होने वाले बच्चों में अधिकतर कम उम्र (6 से 7 वर्ष) के दिखाई देते हैं। यह अनुपात खास तौर पर कर्नाटक, तेलगांना और राजस्थान में देखा गया।
असर 2020 की रिपोर्ट कई और तथ्यों को सामने लाने में कारगर साबित हुई। रिपोर्ट में डिजिटल शिक्षा व्यवस्था और शिक्षण सामग्री की पहुंच को लेकर जो आकंड़े सामने आए वो कुछ इस तरह के थे। लगभग दो तिहाई परिवारों ने बताया कि उन्हें कोरोना काल में स्कूलों द्वारा बच्चों के लिए किसी भी प्रकार की शिक्षण सामग्री नहीं उपलब्ध कराई गयी। रिपोर्ट में ऑनलाइन संसाधनों की पहुंच को लेकर निजी और सरकारी विद्यालयों के बीच का भारी अंतर भी आंकड़ों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया।इस मामले में निजी विद्यालयों के बच्चे सरकारी विद्यालयों से साफ तौर पर आगे है। उदाहरण के लिए निजी विद्यालयों के 28.7%बच्चों ने वीडियो या अन्य तरह की पहले से रिकॉर्ड की गई पाठ्यसामग्री ऑनलाइन देखी थी, जबकि सरकारी विद्यालयों में यह प्रतिशत मात्र 18.3% देखने को मिला।
इन सारी परिस्थितियों का आंकलन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है की भारत में प्राथमिक शिक्षा में सुधार इस वक़्त की एक अहम जरूरत है। कोरोना काल ने इन जरूरतों की ओर सबका ध्यान आकृष्ट कर दिया है, पर लोग अभी भी नए बदलावों की ओर अग्रसर नहीं हुए है। जिनमें कुछ ऐसे है जो जानबूझ कर इस बदलाव का हिस्सा नहीं बना चाहते, कुछ आर्थिक रूप से इसमें सम्मिलित होने की हालत में नहीं है। कुछ ऐसे है जो समाज की रुर्द्धिवादी सोच का शिकार है।कुल मिलकर भारत की जनता खुद के विकास में खुद ही बाधक है।